"सिर्फ एक दुआ मांगी है कबूल करना, भूल से भी कभी ,मुझे मेरी माँ से दूर न करना, छीन लेना मेरे जिस्म से एक -२ कतरा लहू का , पर भूल के कभी मुझे माँ से दूर न करना" (बी.एस.गुर्जर)
Thursday, October 27, 2011
Wednesday, October 19, 2011
दिया की बाती कजराई थी ............
दिया की बाती कजराई थी
वीत गयी वो शाम
वर्षो पहले आई थी....
माँ के हाथ की चुल्हे पे बनी
रोटी .खायी थी .....
जिंदगी वो ही हँसीं थी
जो बरसो पहली पाई थी
आज इन रैत के डब्बों में
घुटन होती है ....
वीते कल में "बीजने" के
सहारे सारी रात बितायी थी .....
कुछ ताकत ही ऐसी थी
उस मिट्टी में ....
जिंदगी कितनी लम्बी पाई थी...
सुद्ध बातावरण कहाँ से लाये
मिलावटी चीजें जो .
आज शोक से खायी है ..
क्यों रोते है आज हम
बीमारियाँ इतनी कहाँ से आई है
वीत गयी वो शाम
वर्षो पहले आई थी....
माँ के हाथ की चुल्हे पे बनी
रोटी .खायी थी .....
जिंदगी वो ही हँसीं थी
जो बरसो पहली पाई थी
आज इन रैत के डब्बों में
घुटन होती है ....
वीते कल में "बीजने" के
सहारे सारी रात बितायी थी .....
कुछ ताकत ही ऐसी थी
उस मिट्टी में ....
जिंदगी कितनी लम्बी पाई थी...
सुद्ध बातावरण कहाँ से लाये
मिलावटी चीजें जो .
आज शोक से खायी है ..
क्यों रोते है आज हम
बीमारियाँ इतनी कहाँ से आई है
इंसानों ने ही दुनिया बनायीं थी ..
और इसानो ने ही मिटाई है ..........
>बी.एस .गुर्जर<
Sunday, October 16, 2011
अपने हो तूम पर ..............
अपने हो तूम पर
लगते अजनवी हो....
स्वप्न हो तुम
पर न जाने क्यों..
पर न जाने क्यों..
हकीक़त लगते हो....
चंद अल्फाजों में
फैसला मेरी जिंदगी
का करने वाले..
कहते हो अपना
पर लगते मुझे पराये हो.......
पूछते हो में कोन हूँ तुम्हारी ..?
और तुम मेरे क्या लगते हो.....
चलते हो तुम संग हाथ थामे
पर न जाने क्यों
सिर्फ एक परछाई सी लगती हो.......
बना के घरोंदा मेरे दिल में
पर न जाने क्यों..
मुशाफिर बनी फिरती हो ........
क्यों मजबूर करती हो मुझे
क्यों तुम मेरी मजबूरी बनती हो.....
चलना चाहती हो संग मेरे
पर न जाने क्यों..
ज़माने से तुम डरती हो...
अक्सर तन्हाईयों में नाम मेरा लेके
पर न जाने क्यों..
तुम आहें भरा करती हो .......
तुम तो मेरा अतीत थी
पर न जाने क्यों.
मेरा आज बनने की कोशिश करती हो........
>बी.स .गुर्जर<
Saturday, October 15, 2011
पराये हुए अपने
ऐसे निभाए कुछ सपने
पलकों के दरमियाँ
उनकी मोहोब्बत की
फिशलन थी........
अश्क आये तो जगह न थी
ठहराव की.......
छुपी थी चांदनी रात
मेरी ही परछाई में.....
वो तो बस उसकी बिंदिया
की एक परछाई थी........
होश न था हमें
बेतहाशा मोहोब्बत
एक दूजे पे लुटाई थी ....
बिखरी थी चांदनी
कल ज़मी पर
कल रात बिंदिया
उसने गिराई थी
रौशनी वो मेरे रकीव की थी
जो कल रात सब को लुभाई थी ......
>बी.एस .गुर्जर<
Sunday, October 9, 2011
उपवन सूने हें.......
उपवन सूने हें
खावोँ के दरमियाँ
सुनहरे पल बचे थोड़े हें
जोड़े थे संग सपने जिसके
वो तो खुद हताश हें
सुनहरे पल बचे थोड़े हें
जोड़े थे संग सपने जिसके
वो तो खुद हताश हें
जो कहते थे कभी मेरे हें....
बंधे थे जो कभी प्रीत की डोर से
आज बन के चंद अफसाने
करते वो मेरी गजलों में शोर हे..........
झूम उठती थी जो वादीयाँ कभी
देखकर मोहोब्बत हमारी
आज रोती हे वही हंशी वादियाँ
जिन्हें देखकर हम
एक दूजे के बाहोँ में
खिलखिला उठते थे ............
पूछकर ज़मी से देखा
कमी हमारी खलती हे
क्या.. तुमको भी,
मजबूर थी अश्क
अपने दिखा न सकी
ये भी एक मजबूरी थी
दिल की दरारों को छुपा न सकी........
चाँद से पूछा ....
क्या तुम भी खुशनुमा चांदनी रात
में हमारी कमी महसूश करते हो
इश्क की बातें जो तुम
हमारी सुना करते थे
टूट कर बिखर जाती थी
चांदनी तुम्हारी बाहोँ में
जब इश्क उसे तुम
मेरी तरह करते थे............
जब पूछा मेने मेरे दिल से
तुम कैसा महसूश करते हो
जबाव दिल का ..
मेरी तो हर धड़कन में
नाम उसका रहता हे
क्या तुम मेरा
दर्द समझ सकते हो .........
.>बी .एस .गुर्जर<
.
बंधे थे जो कभी प्रीत की डोर से
आज बन के चंद अफसाने
करते वो मेरी गजलों में शोर हे..........
झूम उठती थी जो वादीयाँ कभी
देखकर मोहोब्बत हमारी
आज रोती हे वही हंशी वादियाँ
जिन्हें देखकर हम
एक दूजे के बाहोँ में
खिलखिला उठते थे ............
पूछकर ज़मी से देखा
कमी हमारी खलती हे
क्या.. तुमको भी,
मजबूर थी अश्क
अपने दिखा न सकी
ये भी एक मजबूरी थी
दिल की दरारों को छुपा न सकी........
चाँद से पूछा ....
क्या तुम भी खुशनुमा चांदनी रात
में हमारी कमी महसूश करते हो
इश्क की बातें जो तुम
हमारी सुना करते थे
टूट कर बिखर जाती थी
चांदनी तुम्हारी बाहोँ में
जब इश्क उसे तुम
मेरी तरह करते थे............
जब पूछा मेने मेरे दिल से
तुम कैसा महसूश करते हो
जबाव दिल का ..
मेरी तो हर धड़कन में
नाम उसका रहता हे
क्या तुम मेरा
दर्द समझ सकते हो .........
.>बी .एस .गुर्जर<
.
Wednesday, October 5, 2011
यादों में जीना.....
पूछता हूँ तो बता देती है
रूठता हूँ तो मना लेती है!
कुछ ऐसा ही बंध गया है
उसकी यादों से मेरा रिश्ता
एक पल भी तनहा नहीं रहने देती ..?
हर पल मेरी यादों में बसी रहती है
कोई भी शाम तनहा न गुजर जाये
बस हर दम यही सोचती रहती हे!
मेरी बिखरी जिन्दगी को
हर पल वो समेटती रहती हे .
कितनी दूर चली गयी हे मुझसे ..?
सिर्फ मेरी यादों में रहती हे!
में गुजरता हूँ उसकी यादों से
बस कुछ हसीं पलों का हिसाब करती रहती हे
मुझे तो उसकी हर एक अदा हसीं लगती हे!
में सिकायत नहीं करता कभी जिन्दगी से
खामोश 'वीता'करती हे
.मैंने पायी हे जमाने की सारी खुशियाँ
वो हर एक पल मेरी यादों में रहती हे!
Monday, October 3, 2011
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