सुबहा का आलम न जाने
फिजाओं में ये कैसा रंग घुल सा गया हे...
फिजाओं में ये कैसा रंग घुल सा गया हे...
बे हिसाब से पंछीयों की चह -चाहट
मन की प्रसन्नता का राज़ खोल रही सुनहरी धुप ....
मेने अपना ठिकाना बदला नहीं ...
दिल की अंजुमन में फिर वही खलिश वाकी हे
उठा के पलकों से सोदे मोहोब्बत के कर ले
खुले आसमान में हमकदम मुझ चुन ले ....
यकी हो तो आजमाउं पहले खुद पे तो भरोशा कर लूँ
डर जाती हूँ खुद ही उन् सूखे पत्तों के दरमियाँ
यूं महसूश होता हे के तुम मेरे करीब से गुजरे हो .......
क्या मेरा अक्स उभरा हे
जो ये हशी आलम गुनगुना रहा हे .....
.//..B.S.Gurjar ..//..
कल 05/05/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!