अपने हो तूम पर
लगते अजनवी हो....
स्वप्न हो तुम
पर न जाने क्यों..
पर न जाने क्यों..
हकीक़त लगते हो....
चंद अल्फाजों में
फैसला मेरी जिंदगी
का करने वाले..
कहते हो अपना
पर लगते मुझे पराये हो.......
पूछते हो में कोन हूँ तुम्हारी ..?
और तुम मेरे क्या लगते हो.....
चलते हो तुम संग हाथ थामे
पर न जाने क्यों
सिर्फ एक परछाई सी लगती हो.......
बना के घरोंदा मेरे दिल में
पर न जाने क्यों..
मुशाफिर बनी फिरती हो ........
क्यों मजबूर करती हो मुझे
क्यों तुम मेरी मजबूरी बनती हो.....
चलना चाहती हो संग मेरे
पर न जाने क्यों..
ज़माने से तुम डरती हो...
अक्सर तन्हाईयों में नाम मेरा लेके
पर न जाने क्यों..
तुम आहें भरा करती हो .......
तुम तो मेरा अतीत थी
पर न जाने क्यों.
मेरा आज बनने की कोशिश करती हो........
>बी.स .गुर्जर<
bahut sundar rachna !!
ReplyDeleteakanth prem se bhari hui... bahut accha laga padh kar... apki lekhni ki shakti dino din badhti rahe
ReplyDeletebahot hi sundar abhivyakti....badhayi
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर.,....
ReplyDelete