चोर बनूँ चोरी करूँ
चोरी कर सीना जोरी करूँ !
में पाप करूँ
" पाप" कर पापी बनूँ !
में चाँद बनूँ
बन कर चाँद अँधेरी रात करूँ !
शेर बनू चीता बनू ,बड़ी -२ दहाड़ करू
बच सके न कोई ऐसा में शिकार करूँ !
राजा बनू राजनीती से खिलवाड़ करूँ
प्रजा पर में कई अत्याचार करूँ !
में खुद में कितना समझदार बनू
"मूर्खों" से बस काम करूँ!
न 'गीता न कुरान'पढूँ
मुख से बस गालीयों का बखान करूँ !
मर के भी न आत्म आराम करूँ
बन कर "हेवान" फिर से जुल्म तमाम करूँ ! ..बी .एस .गुर्जर
bahut sunder kataksh, likhte rahiye.
ReplyDeleteshubhkamnayen
sunder...
ReplyDelete.
ReplyDeleteअरे अरे भाई ! क्यों उल्टी गंगा बहाने की बातें कर रहे हैं ?
… ओहो ! समझा … आप समाज के दोहरे चरित्र वाले लोगों की बात कर रहे हैं ।
आपकी व्यंग्य रचना अच्छी है , बधाई !
Steek Vyng..... Aj daur ki hakikat bayan karati rachna
ReplyDeleteaccha vyangya hai bhai .....
ReplyDeletenice one..liked it
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