नजर कैसे पुह्चे केसों तक नजर कमर के पलना में संग -२ डोलत जाये
भयो उचंगा भयो लफंगा मन पगला बस डोलत जाये
द्रश्य मनोहर छवि प्यारी क्या हो गयी आज की नारी !
मन को पंची खूब डोलत हे नये -२ वस्त्र खूब बोलत हे
पाठ कोई बापू मोहे न भावे पर,गर्लफ्रैंड को फ़ोन नं तो मोहे मोखिक आवे
जाये माई हाट बाजार पैदल और लाडलो गर्लफ्रैंड को बाईक पे सटाके घुमावे
देख रही ५० वी सदी की दादी चस्मा टूट के स्वर्ग से प्रथ्वी लोक पे विखरत आवे !
चारो और चली हवा ये कैसे हो ५० की या हो १६ की लगे दोनों नोटी सी
वस्त्रोँ की पेलम -पेल देखो बन गया दिल्ली स्पेन देखो
कोई रोक -टोक नहीं हर गली हर मोहोल्ला देखो !
कहाँ चल दिया उड़ के भारत ?
छत पे सुख रहे बस्त्र अपने भी जाके जरा उनकी और अब तो देखो!...पवन ...
jeans pehenna buri baat nhi hein..par usiko shalin rup se pehen na jaruri ha........ kapne apni pehchan bayan karte hein.... ugrata nari ka apman ha... shalinta to nari ka samman ha.....
ReplyDeleteGood,
ReplyDeleteविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
पहनावे का उतना दोष नहीं है जितना नजरिया का है..
ReplyDeleteऔर नजरिया गलत तब ज्यादा हो जाता है जब घर और समाज से सही शिक्षा नहीं मिलती है..
पहल खुद के घर से करनी होगी..
प्रतीक जी का कहना सत्य है। पहली शिक्षा घर से ही मिलती है इसके बाद समाज । चारो ओर जब यह स्थिति व्यक्ति देखता है तो काजल की कोठरी में कैसो ही सयानो जाय एक लीक काजर की लागिहै पे लागिहै
ReplyDeleteप्रतीक जी हम आपकी बात से सहमत है आपने शायद हमारी लिखित आखरी पंक्ति को पड़ा नहीं हमने सर्व प्रथम अपने घर से ही सुरुआत की है "छत पे सुख रहे वस्त्र अपने भी, जाके जरा उनकी और अब तो देखो" ...धन्यवाद..
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