में वो कांरवा ना जाने कहाँ छोड़ आया
कुछ अच्छे तो कुछ बुरे पलों से मुह मोड़ आया!
बही खामोश रातें बही मायूशी भरे दिन सब को भुला आया
फिर नयी डगर पर संभल कर चलने के लिए तेयार हो आया !
में गिरू में उठू इस ख्याल को अपने दिल से निकाल आया
मेने वो रस्ते ही बदल दिए जहाँ गिरने का ख्याल मन में आया !
में तो झूंठ की तिजोरी से बहार निकला हूँ तो समझ में आया
वो सच की चिल्लर ही बहुत थी मेरे लिए "झूठ की तिजोरी से भला मेने क्या पाया" !
कभी बनते तो कभी बिगड़ते रिश्तों को संभलने में क्या खोया और क्या पाया
बर्बश ही मेने वक्त गवाया मिला तो नहीं कोई सुख पर दुःख सारे जहाँ का उठाया !
कब में जागता कब में सोता था
बिना पंखों बाला में एक तोता था!
वही छोटी सी दुनिया थी मेरी बस वही रहता था
इस अत्याचारी दुनिया के पिंजरे में बंद हर वक्त बस रोता था !...गुर्जर ...
accha lekhan ha......
ReplyDelete"कब में जागता कब में सोता था
बिना पंखों बाला में एक तोता था!
वही छोटी सी दुनिया थी मेरी बस वही रहता था
इस अत्याचारी दुनिया के पिंजरे में बंद हर वक्त बस रोता था !..
really a very good writer you are !!!!!
ReplyDeletewonderful...:))
बहुत खूब
ReplyDeleteसुन्दर रचना
कब में जागता कब में सोता था
बिना पंखों बाला में एक तोता था!
वही छोटी सी दुनिया थी मेरी बस वही रहता था
इस अत्याचारी दुनिया के पिंजरे में बंद हर वक्त बस रोता था
बेहतरीन अभिव्यक्ति